शरजील इमाम ने क्यों छोड़ी थी वामपंथी राजनीति, JNU के मुस्लिम कॉमरेड की आपबीती

बिहार के पटना और जहानाबाद के जिन इलाकों में मैं पला बढ़ा वहां सात से आठ फीसद मुसलमान आबादी है. पिछले सौ सालों में इस इलाके में मुस्लिम गांवों पर अनेक छोटे बड़े हमले हुए जिनमें 1917, 1946 और 1989 के हमले सबसे बड़े और सुनियोजित थे.


ऐसे इलाके में जहां मुसलमानों की छोटी सी आबादी दंगों से लेकर रोजमर्रा के भेदभाव के बीच जीवन बिताती है वहां मेरे पिता अकबर इमाम ने अपनी जिंदगी मुसलमानों को राजनीतिक रूप से इकट्ठा करने में लगाई. यानी बचपन से मैंने दंगों, भेदभाव और एक दबाई हुई अल्पसंख्यक कौम की जमीनी हकीकत को देखा और भोगा है.


आईआईटी-बॉम्बे में एक अकेला मुसलमान लड़का


साल 2006 में आईआईटी-बॉम्बे के कंप्यूटर-साइंस डिपार्टमेंट में एडमिशन लेने वाला मैं अकेला मुसलमान लड़का था. हॉस्टल में कुल तीन मुसलमान पोस्ट-ग्रेजुएट थे लेकिन लगभग 200 अंडर-ग्रेजुएट्स में मैं अकेला था.



मुसलमानों के लगभग न के बराबर होने की वजह से यहां मुसलमानों के बारे में कई गलत धारणाएं और अफवाहें मौजूद थीं. कई नादान हिंदू छात्र उन्हें सच मान बैठे थे क्योंकि उन धारणाओं का खंडन करने वाला कोई नहीं था. एक बार दूसरे साल में जब एक सीनियर-विंग में कमरा लेने के लिए मेरा इंटरव्यू चल रहा था तो थर्ड ईयर के कुछ लड़कों ने मुझे कमरा देने से मना कर दिया क्योंकि मैं मुसलमान था.


अजीबोगरीब सवाल पूछे गये जैसे, ‘अगर हममें से कोई मुहम्मद को गाली दे, तो?’ या फिर ‘तुम लोग दाढ़ी क्यों नहीं बनाते?’


खैर मेरे कुछ दोस्तों के बीच बचाव के बाद प्रशासन ने एक रैंडम कमरा मुझे दे दिया. थर्ड ईयर में कुछ हिंदू छात्र करीब महीने भर ये कोशिश करते रहे कि वो मुझसे बहस-बातचीत करके जबरन इस्लाम-विरोधी साहित्य देकर मुझे हिंदू या इस्लाम विरोधी बना सकें.


ग्रेजुएशन के बाद दो साल मैंने बैंगलोर में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में डेवेलपर के तौर पर बिताए. कॉरपोरेट दुनिया में कम ही मुसलमान ऊंचे ओहदों तक पहुंच पाते हैं. ऐसा शायद इसलिए भी क्योंकि इन पेशों में ऊंची जगहों पर आने वाले अधिकतर लोग आईआईटी जैसे कॉलेजों से ही आते हैं जहां मुसलमान कम ही पहुंचते हैं. इस कंपनी में भी मेरे गुजारे साल आईआईटी में बिताए सालों से कुछ अलग नहीं थे.